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Animal trials in 18th century Europe:टिड्डियों और चूहों को भी मिलती थी सजा!

By: khabarme

On: रविवार, जुलाई 6, 2025 11:08 पूर्वाह्न

Animal trials in 18th century Europe
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Animal trials in 18th century Europe in hindi : आज के समय में अगर कोई कहे कि चूहों या टिड्डियों पर कोर्ट में मुकदमा चला और उन्हें सजा दी गई, तो शायद आपको हंसी आ जाए। लेकिन 18वीं सदी तक यूरोप में यह कोई मजाक नहीं था। उस समय जानवरों को इंसानों की तरह अपराधी मानकर उन पर मुकदमे चलाए जाते थे।

फसल नष्ट करने वाले टिड्डियों और चूहों से लेकर इंसानों पर हमला करने वाले सुअरों तक को अदालत में पेश किया जाता था। कुछ को तो मृत्युदंड तक की सजा सुनाई जाती थी! यह प्रथा आज के कानूनों और भारत जैसे देशों की परंपराओं से कितनी अलग थी? आइए, इस अनोखी ऐतिहासिक प्रथा को समझते हैं और इसकी तुलना अन्य न्याय व्यवस्थाओं से करते हैं।

Animal trials:क्या थी जानवरों पर मुकदमे की प्रथा?

मध्यकालीन यूरोप में, खासकर 13वीं से 18वीं सदी तक, जानवरों को अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था। अगर कोई सुअर इंसान पर हमला करता या टिड्डियां फसलों को बर्बाद करतीं, तो उन्हें कोर्ट में लाया जाता था। इन मुकदमों को गंभीरता से लिया जाता था, और कई बार वकील तक नियुक्त किए जाते थे।

Animal trials in 18th century Europe
  • सुअरों पर मुकदमे: सुअरों को अक्सर इंसानों पर हमले या हत्या के लिए दोषी ठहराया जाता था। फ्रांस में 14वीं सदी में एक सुअर को हत्या के लिए फांसी दी गई थी।
  • टिड्डी और चूहे: फसल नष्ट करने के लिए टिड्डियों और चूहों पर मुकदमे चलते थे। इन्हें “प्राकृतिक आपदा” की तरह देखा जाता था, लेकिन फिर भी इन्हें सजा दी जाती थी।
  • सजा का तरीका: दोषी जानवरों को फांसी, निर्वासन, या सार्वजनिक रूप से दंडित किया जाता था। कुछ मामलों में, टिड्डियों को “शापित” कर क्षेत्र से बाहर निकालने का आदेश दिया जाता था।

ई.पी. इवान की किताब द क्रिमिनल प्रोसेक्यूशन एंड कैपिटल पनिशमेंट ऑफ एनिमल्स (1906) में ऐसे कई मामलों का जिक्र है। उदाहरण के लिए, फ्रांस में एक वकील ने चूहों की गैरहाजिरी को यह कहकर सही ठहराया कि वे डर की वजह से कोर्ट नहीं पहुंच सके।

क्यों थी ऐसी प्रथा?

18वीं सदी के यूरोप में यह प्रथा धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं से जुड़ी थी। उस समय लोग मानते थे कि जानवरों के कार्य भी ईश्वर की इच्छा से होते हैं, और बुरे कार्यों को सजा देना जरूरी है।

  • धार्मिक विश्वास: चर्च का मानना था कि जानवरों के अपराध शैतान के प्रभाव के कारण हैं। इसलिए, उन्हें सजा देकर समाज को “शुद्ध” किया जाता था।
  • सामाजिक व्यवस्था: फसलों का नुकसान उस समय गंभीर समस्या थी, क्योंकि कृषि ही अर्थव्यवस्था का आधार थी।
  • कानूनी ढांचा: मध्यकालीन यूरोप में कानून बहुत सख्त थे, और हर अपराध को सजा से जोड़ा जाता था, चाहे वह इंसान हो या जानवर।

भारत और अन्य संस्कृतियों से तुलना

भारत में ऐसी प्रथा का कोई स्पष्ट ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं है। भारतीय संस्कृति में जानवरों को अक्सर पूजनीय माना जाता रहा है, जैसे गाय, सांप, या हाथी। अगर कोई जानवर फसल को नुकसान पहुंचाता था, तो उसे भगाने या रोकने के लिए पारंपरिक तरीके अपनाए जाते थे, न कि मुकदमा चलाया जाता।

  • भारतीय परंपरा: भारत में फसलों को कीटों से बचाने के लिए नीम के पत्ते, धूप, या हवन जैसे तरीके इस्तेमाल होते थे। आज भी राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में टिड्डी हमलों को रोकने के लिए कृषि विभाग प्राकृतिक और रासायनिक उपाय सुझाता है।[
  • चीन और अन्य देश: प्राचीन चीन में भी कीटों को भगाने के लिए धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे, लेकिन मुकदमों का कोई जिक्र नहीं मिलता। जापान में फसलों की रक्षा के लिए प्राकृतिक उपायों पर जोर था।
  • आधुनिक समय: आज भारत में जंगली जानवरों द्वारा फसल नुकसान की स्थिति में सरकार मुआवजा देती है, जैसे कि मुंगेर में जंगली जानवरों के लिए मुआवजा नीति।

यूरोप की यह प्रथा भारतीय और एशियाई संस्कृतियों से बिल्कुल अलग थी, क्योंकि वहां जानवरों को मानव जैसी जिम्मेदारी देने का चलन नहीं था।

आज के समय में रेलीवेंस

आज यह प्रथा हमें अजीब लगती है, लेकिन यह उस समय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाती है। यूरोप में 16वीं से 18वीं सदी में कृषि क्रांति ने फसलों की पैदावार बढ़ाई, जिससे फसल नुकसान को रोकना और भी जरूरी हो गया। आज भारत में टिड्डी हमलों को रोकने के लिए आधुनिक तकनीकें, जैसे ड्रोन और कीटनाशक, इस्तेमाल होती हैं।

आधुनिक उपाय:

  • टिड्डी नियंत्रण के लिए भारत में कृषि मंत्रालय द्वारा ड्रोन और कीटनाशकों का उपयोग।
  • चूहों से बचाव के लिए अनाज भंडारण में साइलोस और कीट-रोधी डिब्बों का इस्तेमाल।
  • प्राकृतिक उपाय: नीम का तेल, धूप, और पक्षियों को आकर्षित करने वाले पेड़ लगाना।
  • आधुनिक तकनीक: ड्रोन से कीटनाशक छिड़काव और फसल अवशेषों को जलाने से बचना। जागरूकता: किसानों को प्रशिक्षण देकर कीटों के प्रकोप को जल्दी पहचानने में मदद।

18वीं सदी में यूरोप में जानवरों पर मुकदमे चलाना एक अनोखी प्रथा थी, जो उस समय की धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को दर्शाती है। भारत में ऐसी प्रथा कभी नहीं रही, लेकिन फसलों को कीटों से बचाने की चुनौती आज भी बनी हुई है। आधुनिक तकनीक और जागरूकता से हम इस समस्या से बेहतर तरीके से निपट सकते हैं। अधिक जानकारी के लिए भारत सरकार के कृषि मंत्रालय या ई.पी. इवान की किताब द क्रिमिनल प्रोसेक्यूशन एंड कैपिटल पनिशमेंट ऑफ एनिमल्स देख सकते हैं।

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